Saturday, May 26, 2012

राग दरबारी - १

ऐसा है कि मैने हाल में कुछ अलग किया। एक उपन्यास, हिन्दी की, पहले से अन्तिम पृष्ठ तक पढ़ डाली। वह भी बिना रोये, और न ही कक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये। इस अचम्भे के लिये श्री श्री लाल शुक्ल को शत शत नमन। वे पहले लेखक हैं जिन्होंने मुझे दर्शाया कि हिन्दी केवल ज़मीन्दारों का दमन, गर्भ पतन, छुटा/उजड़ा चमन, दुखी मन, या टूटे व भुखे तन की रूपरेखा खींचने के लिये नहीं है, किन्तु उसके साथ खेल जा सकता है, चटक रंगो से रंगा जा सकता है; अावश्यकता नहीं कि पाठकों को हमेशा थमाया जाये प्रवचनो की सेहतरूपी गाजर और न ही  के पात्रों पर कर कठोर अत्यचार घुसेढ़ा जाये पढ़ने वालों के दिल में खंजर। उनसे यह भी पता चला कि हिन्दी की कहानी में हँसी बिना केले पे फिसले, और बिना अपशब्दों के बलात्कार से भी लायी जा सकती है। अाखरी बात अाजकल के फिल्म निर्माता भुल सी गये हैं। पहली बात राज कपूर के पल्ले नहीं पड़ी और बना डाली उसने "दो जासूस"।

श्री लाल शुक्ल पिछले वर्ष स्वर्गवासी हुये। इस बात पर स्टीव जॅाब्स की याद में आई पॅाड पर गीता का पाठ सुनता हुआ अाम भरतीय नागरिक ध्यान नहीं दे पाया। और मुझसे भी ६ वर्षों में यह नहीं हुआ कि लखनऊ जा कर श्री लाल शुक्ल से स्वयं भेंट कर आँऊ। जो काज आज नहीं किया, अब कभी नहीं होगा। इस लिये मैंने तय किया कि मैं उनकी याद में भारतीय जीवन, उस पर किया जा रहा हास्यस्पद दु:शासन, और उसके धुंधले हुये जाते इतिहास की महत्वपूर्ण घटनायें अापके समक्ष रखूँगा।

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सेठ जी ने गहरी सँास ली, अपने विशाल उदर के विरोध को उपेक्षित किया, और बाबू साहब के ऊपर मार्मिक आँखें फेरते हुये निर्णय लिया कि इन्हें भारत के इतिहास के कुछ कड़वे सत्यों से अवगत कराया जाये। और कड़वेपन में भारत पर महमूद गज़्नवी के सत्रह आक्रमाणों से बड़ा करेला क्या हो सकता है? इस किस्से से बाबू साहब स्वयं समझ जायेंगे कि क्यों हमारी जनता देश को कम और परिवार को अधिक महत्व देती है, क्यों हम घर को स्वच्छ कर कूड़ा बाहर सड़क पर फेंक देते हैं, क्या कारण है की मातृत्व के दूध से सना हुआ हिन्दुस्तानी मातृभूमि पर मूतता फिरता  है। उन्होंने तीव्रता में भाषण आरम्भ किया :-
'गज़्नवी जब बैठा अपने महल में जाम पी रहा था, तो उसे लगा के एक बार और हिन्दुस्तान पर चढाई की जाये। सुना है कि सोमनाथ में खज़ाना अनगिनत है। उसने अपने सेनापति, जिसका मैं नाम भूल रहा हूं, उसे आदेश दिया। सेनापति ने नतमस्तक पूछा, "हुज़ूर, अभी पिछले साल तो गये थे उस ओर। शाकाहारी भोजन के प्रहार से पेट अभी पूरा सम्भला नहीं है। यहाँ कई हिन्दुस्तानी हूरों की सार्थक जाँच भी नहीं हुई। और न ही उन लूटी हुई करोणों गिन्नियओं कि हुई है गिनती।" इस आखरी बात पर गज़्नवी चौंका, और सफ़ाई माँगी। सेनापति बोला, "हमारे कोशपतियों को लाखों के ऊपर थोड़ी समस्या होती है। पहले कभी अावश्यकता नहीं पड़ी, तो आदत नहीं है।" फिर अपनी बात पर कबूतर की तरह लौटते हुए सेनापति ने वापस हिन्दुस्तान न जाने का सर्वमहत्वपूर्ण कारण कहा:"और सबसे अहम बात, अभी हिन्दुस्तान की पूँजी पर लागी चोट पूरी भरी नहीं होगी। तो आपको लगता नहीं के थोड़ा और रुका जाये।" गज़्नवी बोला, "मूर्ख, एक हिन्दु, ना सिर्फ़ अपने लिये, बल्कि अपनी तीन पुश्तों के लिये जीता है। एक साल मैं काफ़ी राशी जमा की होगी उसने अपनी औलादों के लिये। और यह मत समझो कि इस धन से उसने बनाये होंगे किले, या जोड़ी होंगी तल्वारें, ना जुटायी होंगी सेनायें। अधिक से अधिक हमारी सेना के सामने खड़ी कर देंगे गाय, मान कर के क्योंकि सोमनाथ के भीतर शिव स्वयं स्थित हैं, तो रक्षा करेंगे ही। तैय्यारी करो!"

तो यही है हमारे देश की कमी, यहँा जनता अपने, और अपने देश, धर्म और कानून की कम, और अपनी सन्तानों की अधिक सोचती है। इस बात को समझना चाहिये अौर इस पर चिन्तन करना चाहिये।' यह बोल कर सेठ जी ने अपना विशाल मस्तिष्क अपने समक्ष रखी डबलरोटी, मक्खन और सूप से लदी थाल की ओर मोढ़ा, और इन खाद्य पदार्थों को उनके समुचित लक्ष्य पर बिना विलम्ब पहुँचाने में जुट गये।

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* वैसे बुद्धीजीवीयों का मत है कि भारत की आत्मा और उसमें पड़े घाव व छेदों को जानने के लिये उसके इतिहास के सहस्त्र आख्यानों में से भारत, मुख्यत: सोमनाथ, और महमूद गज़्नवी का प्रसंग पर्याप्त है। उसी तरह जिस तरह १९९० के दशक में भारत की क्रिकिट में हर हार का मूल कारण शारजाह में लगा मियाँदाद का एक छक्का था।

1 Comments:

Blogger Unknown said...

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